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Showing posts from June, 2017

वैद्यनाथ मिश्र अर्थात बाबा नागार्जुन जन्मदिवस

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आज है 30 जून यानी "जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं,जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊं" जैसी पंक्तियाँ कहने वाले  आधुनिक हिंदी साहित्य के अमर काव्य -शिल्पी वैद्यनाथ मिश्र अर्थात बाबा नागार्जुन का जन्मदिवस। तो आइए इस अवसर पर कूड़ा-करकट टीम की ओर से पढ़ते हैं बाबा द्वारा रचित कविता"बादल को घिरते देखा है"                                                                Photo edit by:- आमिर 'विद्यार्थी'  बादल को घिरते देखा है अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है, बादलों को घिरते देखा है। तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलें हैं, उनके श्यामल नील सलिल में समतल देशों से आ-आकर पावस की ऊमस से आकुल तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते हँसों को तिरते देखा है। बादल को घिरते देखा है। ऋतु वसंत का सुप्रभात था मंद-मंद था अनिल बह रहा बालारुण की मृदु किरणों थीं अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे एक दूसरे से

24 जून श्रद्धाराम फिल्लौरी पुण्यतिथि

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आज है 24 जून यानी भाग्यवती उपन्यास तथा ओम जय जगदीश हरे... जैसी उत्तर भारत में प्रसिद्ध आरती लिखने वाले श्रीयुत  श्रद्धाराम फिल्लौरी   की पुण्यतिथि  | तो पढ़ते हैं डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण' द्वारा लिखित लेख |    डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ पूरे विश्व में अपनी कालजयी ‘आरती’ लिखकर अमर होने वाले पंडित श्रद्धाराम ‘फिल्लौरी’ का प्रसिद्ध हिंदी उपन्यास ‘भाग्यवती’ आज भी हिंदी का ‘प्रथम’ उपन्यास माना जाता है। ओम जय जगदीश हरे… शब्दों वाली आरती के रचयिता पंडित श्रद्धाराम ‘फिल्लौरी’ भले ही धार्मिक ग्रंथों, काव्यों और पदों के रचयिता रहे हों, लेकिन आज भी हिंदी साहित्य के इतिहास में पंजाब के इस हिंदी सेवी का नाम अमर है। ‘भाग्यवती’ उपन्यास के साथ ही सिद्धांत ग्रन्थ सत्यामृत प्रवाह के अतिरिक्त लगभग डेढ़ दर्शन कृतियों के रचनाकार फिल्लौरी जी ने फारसी, उर्दू, पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का विपुल कार्य भी किया है। हिंदी के ‘प्रथम’ उपन्यास को लेकर छिड़ा विवाद तो थम गया है और परीक्षा गुरु को कुछ तकनीकी आधारों पर हिंदी का ‘पहला’ उपन्यास घोषित कर दिया गया है, लेकिन ‘कालजयी’

मिर्ज़ा ग़ालिब ग़ज़ल

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  ग़ज़ल मिर्ज़ा ग़ालिब की और फोटों खींचे हैं  मैंने                                                                                           -  आमिर'विद्यार्थी'                                                                                                     आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता'लीम मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक

कविता

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                                                       'ठेकेदार'                                                                                                -फरज़ाना सैफी 'बड़बोली'       न जाने कैसी रंजिशे हैं इन आँखों में? कुछ तो वजह हो मुकम्मल जिस पर किसी हद तक सोचा जाए कौन हैं वह चार लोग जिन्हें ठेकेदार बनाया गया है हमारा जो घूमते हैं हमारे इर्द-गिर्द और घूरते हैं बड़ी-बड़ी आँखों से क्यों उनकी झूठी रीतियों को माना जाए क्यों उन्हें सर्वोपरि माना जाये क्या सचमुच उन लोगों में है इतनी कुव्वत कि वो जीत जाएं हम पर? लेकिन उन चार खम्बों का सहायक हम खुद भी हैं चलिए अब पहल की जाए और यह दीवार कमज़ोर बनाई जाए फिर देखते हैं कौन किस पर भारी हम भारी या तुम भारी?

ओमप्रकाश वाल्मीकि कविता 'जूता'

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'जूता'  कविता  ओमप्रकाश वाल्मीकि एक ऐसा नाम है जो अपने रचनाकर्म से गहराई तक हमे प्रभावित करता है | इनका साहित्य चाहे वह कहानी हो या फिर कविता हो आदि सब में किसी भी प्रकार का दुराव-छिपाव दिखाई नही देता तो इस लिहाज से इनका साहित्य एक 'सत्य साहित्य' की श्रेणी में आता है | (जूता) यह कविता  एक साथ वर्तमान, अतीत और भविष्य की चेतना और संवेदना के सन्दर्भ में आज भी  प्रसांगिक है |   मेरी आँखे सोचने का काम करती है तो इसलिए आप भी देखिये और सोचिये |                                                                                                             - वसीम

कहानी - जिया न जलइयों रे.... राहुल भारती

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                                     जिया न जलइयों रे .... खुद को दस बार शीशे में देखने के बाद जब उसे तसल्ली हो गई कि वो ठीक लग रहा है | उसने अपना बैग उठाया और सीढियों से नीचे उतरने लगा | सीढ़ियों पर ही एक्स का डीयो लगाया और फिर चलता बना | डीयो की खुशबू कुछ ऐसे फैली लगा कि सारी लडकियाँ अभी आकर चिपक जायगी बिलकुल एक्स डीयो के ऐड की   तरह | ढीला चेक वाला पायजामा, झूलती सी टी-शर्ट जिस पर 'चे ग्वेरा' बाहर झांकते हुए और कंधे पर लटकता वो लैदर का काला बैग जो शायद करोल बाग़ में हर सोमवार को लगने वाले चोर बाजार से बड़े ही सस्ते दामों में खरीदा गया था |                                                                                              चित्र - राहुल भारती  बारिश से रास्ते में जो कीचड़ हो गयी थी वह उसके हर कदम पर जमीन से उठकर उसके पाएजामे में चिपकती जाती, चलो एक्स डीयो ने किसी को तो आकर्षित किया | सामने कोने से लगकर एक दूकान जिस पर कम-से-कम बीस प्रकार के गुटखों की लड़ियाँ बड़े ही अनुशासन में लगी हुई है | ठीक सामने सड़क पर बोर्ड लगा है कृपया अपने लेन में रहे | इन लड़िय

डायरीनुमा रात

                                                                डायरी एक रात की  वो रात बहुत चमकीली थी मानो आसमान से सितारे चू रहे थे | सड़के सुनसान जरुर थी पर न जाने क्यों लगता था 'वो जहां है वही ठहरी हुई है, कि यही सड़क का अंतिम छोर है उस और न जाने क्या होगा यही भय था उन चारों दोस्तों को फिर भी इन दोस्तों ने दिल्ली की आधी सड़के नाप ली थी | इनको सड़क के उस ओर देखना था, इन्हें तो सिर्फ अपनी दुनिया में जाना था | इन चारों में मैं भी था, तीन और थे | हम सबकी अलग-अलग दुनिया थी | हर कोई अपने में जीना चाहता था | उस रात में बाहर निकलने का हमारा मकसद कुछ अधिक बड़ा नहीं था, था तो सिर्फ उस शोरमय रात में एक दुसरे के दिलों के सन्नाटों को जानना था | शाम के वक्त हम चारों एक बस स्टॉप पर मिले, मिलते तो हम पहले भी थे पर आज कुछ अलग था | दरअसल हम चारों ने पहले कभी शराब नहीं पी थी बस दूर से देखा था इसीलिए हम निकल पड़े उस भभकती रात में शराब लेने | हमे पीने का इतना जूनून था की सड़क किनारे लेटे शराबियों को हमने उठाकर पूछा इस टाइम शराब कहाँ मिल सकती है वो नशे की हालत में बोला - "मेअरा दोस्त आ रहा है अभ
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  फूलों को मसलने वाले खूनी पांवों को  शायद यह पता नहीं था  फूल जितने रौंदे जाएंगे                           खुशबू उतनी तेज होगी!        मदन कश्यप  देखा जाए तो भारतीय संस्कृति में फूलों का बड़ा ही महत्त्व रहा है और अभी भी है | देवताओं के चेहरे आखिर फूल ही खिलातें है , मज़ारों पर तड़का भी इन्ही फूलों का लगता है और मजे की बात तो ये है कि सम्पूर्ण सत्ता प्रकृति पर निर्भर है | बस इसी महत्त्व को अपने-अपने ढंग से सिद्ध करने के लिए बड़े-बड़े विद्वान आकर चले   गये | ख़ैर एक रोज़ लगायेगी नारे प्रकृति भी अपनी आजादी के |  नतीजन यदि मैं फूल होता  पहुँच जाता मुखालफ़त करने जहन्नुम में |                                                                                                 photo by - आमिर 'विद्यार्थी' 
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हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए                                                                                           Photo by - आमिर 'विद्यार्थी'