डायरीनुमा रात


                                                                डायरी एक रात की 


वो रात बहुत चमकीली थी मानो आसमान से सितारे चू रहे थे | सड़के सुनसान जरुर थी पर न जाने क्यों लगता था 'वो जहां है वही ठहरी हुई है, कि यही सड़क का अंतिम छोर है उस और न जाने क्या होगा यही भय था उन चारों दोस्तों को फिर भी इन दोस्तों ने दिल्ली की आधी सड़के नाप ली थी | इनको सड़क के उस ओर देखना था, इन्हें तो सिर्फ अपनी दुनिया में जाना था | इन चारों में मैं भी था, तीन और थे | हम सबकी अलग-अलग दुनिया थी | हर कोई अपने में जीना चाहता था | उस रात में बाहर निकलने का हमारा मकसद कुछ अधिक बड़ा नहीं था, था तो सिर्फ उस शोरमय रात में एक दुसरे के दिलों के सन्नाटों को जानना था | शाम के वक्त हम चारों एक बस स्टॉप पर मिले, मिलते तो हम पहले भी थे पर आज कुछ अलग था | दरअसल हम चारों ने पहले कभी शराब नहीं पी थी बस दूर से देखा था इसीलिए हम निकल पड़े उस भभकती रात में शराब लेने | हमे पीने का इतना जूनून था की सड़क किनारे लेटे शराबियों को हमने उठाकर पूछा इस टाइम शराब कहाँ मिल सकती है वो नशे की हालत में बोला - "मेअरा दोस्त आ रहा है अभी उसके साथ जाना वो दिलाएगा" हम वही खड़े रहे और बाते करते रहे | कुछ देर बाद वो आया हमे साथ चलने को बोला और हाथ के इशारे से कहा कि- "वो वहां मिलेगी पुल के नीचे" | उसका ये वाक्य सुनकर और उसकी नशेमय हालत को देखकर हम एक-एक करके वहां से निकल लिए उस फ्लाईओवर की तरफ जहां उस भले आदमी ने बताया था | 
हमारे पास कुल मिलाकर चारों लोगों पर लगभग दो सौ रूपये थे | जिसमें से हमे एक सिगरेट का पैकेट लेना था और एक शराब की बोतल | उस रात का वातावरण हम पर अपनेआप में एक अलग ही छाप छोड़ चुका था | सड़क किनारे पड़े अनगिनत शराब के पव्वों इस बात के गवाह थे की आस-पास ही कही शराब की दुकान होगी | पर ये हमारी सोच से बिलकुल अलग था | हमारे दिमाग में उस दुकान और वहां आस-पास पड़े नशेड़ियों और चोर-उचक्कों की तस्वीर उभर-उभर कर सामने आने लगी और न जाने कितनी बातें यूँ ही चलती रही | हम में से किसी की हिम्मत वहां जाने की नहीं हुई हम वापस उसी बस स्टॉप पर आ गये जहां हम मिले थे | स्टॉप पर खड़े एक युवक से हम में से एक ने शोरगुल रात में उसके कान में जाकर पूछा - 'आपको पता है इस समय शराब कहाँ मिलेगी' उसने बड़ी उत्साह से बताया के "दिल्ली के बोर्डर पर,हरियाणा में" | हम में से दो तीन ने वहां जाने की हिम्मत दिखाई आखिर हमारे पास पैसे भी कम थे | शराब का उत्साह इतना था कि पैदल ही हम हरियाणा के लिए चल दिए, पर आधे रास्ते में हमे पता चला की भरत नगर के गुरूद्वारे के पास एक गली है वहां मिल सकती है बस हम इसी आशा भरे वाक्य को सुनकर चल दिए उस गली की तलाश में जो हमे हमसे मिलवाना चाहती थी | 
गलियाँ तो वहां बहुत थी पर सयोंग से हम उसी गली में जा पहुंचे जिसने हमे इस रात का दीदार कराया | गली धुंए और शोर से भरी हुई थी | लोग कानों में उंगलियाँ डाले खड़े थे हम भी ऐसा करते हुए चल दिए | पीछे से एक आवाज आई - "हाँ! भाइयों क्या चाहिए......." उसने अंग्रेजी के दो-तीन नाम गिनाये जो हमारी समझ से बाहर थे | हम अनसुना करके आगे निकल लिए और एक दुकान पर जा पहुंचे जो बाहर से तो चिकन शॉप थी पर अंदर उसके वही मिलता था जिसे हम छूना चाहते थे, देर तक देख-देख कर पीना चाहते थे | आखिर वो हमे  150 रूपये में मिल गयी | हम चारों वापस एक दोस्त के घर आ गये | हमने फिर एक दुसरे की प्रेमिकाओं पर बात की, भगवान पर बात की,किसी ने अपना संघर्ष बताया | बस ऐसे ही वो रात बीत गयी जो कभी दोबारा न आई | 

हाँ ! उस रात दिवाली थी | 


                                                                                                            --वसीम 

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