कविता
‘उड़ता दरवाज़ा’
नक्शा नवीस ने बना दी खिड़की
झाँक सके अंदर
देख सके स्त्री की निजता को
देख सके स्त्री की निजता को
दिखाई दे सके स्त्री को
खिड़की जितना ही बाहर
जैसे नही दिखता काली शीशे
लगी गाडी में बाहर से
दंभी लोग भौक रहे हैं
दंभी लोग भौक रहे हैं
रच रहे हैं षडयंत्र
आखिर गलती बाँझ नहीं होती
वो जन्म दे देती है,
जी लेती है नसीब समझकर
समझ लेती है खिड़की खुली है
पर भूल जाता है नक्शा नवीस
बनाया है उसने ही ‘दरवाजा’
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__ शाहीन
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