हरिशंकर परसाई

आज है 22 अगस्त यानि की हरिशंकर परसाई जी का जन्मदिन | परसाई जी ने मात्र व्यंग्य को विधा के रूप में ही पहचान नहीं दिलाई बल्कि असल में एक सम्पूर्ण 'व्यंग्य' क्या होता है उससे हमे परिचित कराया | परसाई जी का लगभग पूरा साहित्य चाहे वह कविता हो, कहानी हो, निबन्ध हो, उपन्यास हो या व्यंग्य विधा हो सब में समाज की विसंगतियों पर प्रहार करता दिखाई देता है | सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक व्यवस्थाओं में जकड़े आम जन-मानस के यथार्थ को बहुत ही गम्भीरता से परसाई जी अलग-अलग विधा में अपनी बात कहते है | परसाई जी की हास्य से भरी बातें भी ह्रदय में एक गम्भीर प्रहार करती है और हमे सोचने पर मजबूर करती है | 
इस अवसर पर पढ़ते है 'हास्य व्यंग'- 'भारत को चाहिए जादूगर और साधु' और कूड़ा-करकट टीम की और से परसाई जी और इनके साहित्य को सलाम जिसकी वजह से इनको आज भी याद किया और पढ़ा जाता है | 


'भारत को चाहिए जादूगर और साधु' 


हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूँ कि साल-भर में कितने बढ़े। न सोचूँ तो भी काम चलेगा - बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा। सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।
यह 26 जनवरी 1972 फिर आ गया। यह गणतंत्र दिवस है, मगर 'गण' टूट रहे हैं। हर गणतंत्र दिवस 'गण' के टूटने या नए 'गण' बनने के आंदोलन के साथ आता है। इस बार आंध्र और तेलंगाना हैं। अगले साल इसी पावन दिवस पर कोई और 'गण' संकट आएगा।
इस पूरे साल में मैंने दो चीजें देखीं। दो तरह के लोग बढ़े - जादूगर और साधु बढ़े। मेरा अंदाज था, सामान्य आदमी के जीवन के सुभीते बढ़ेंगे - मगर नहीं। बढ़े तो जादूगर और साधु-योगी। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या ये जादूगर और साधु 'गरीबी हटाओ' प्रोग्राम के अंतर्गत ही आ रहे हैं! क्या इसमें कोई योजना है?

रोज अखबार उठाकर देखता हूँ। दो खबरें सामने आती हैं - कोई नया जादूगर और कोई नया साधु पैदा हो गया है। उसका विज्ञापन छपता है। जादूगर आँखों पर पट्टी बाँधकर स्कूटर चलाता है और 'गरीबी हटाओ' वाली जनता कामधाम छोड़कर, तीन-चार घंटे आँखों पर पट्टी बाँधे जादू्गर को देखती हजारों की संख्या में सड़क के दोनों तरफ खड़ी रहती है। ये छोटे जादूगर हैं। इस देश में बड़े बड़े जादूगर हैं, जो छब्बीस सालों से आँखों पर पट्टी बाँधे हैं। जब वे देखते हैं कि जनता अकुला रही है और कुछ करने पर उतारू है, तो वे फौरन जादू का खेल दिखाने लगते हैं। जनता देखती है, ताली पीटती है। मैं पूछता हूँ - जादूगर साहब, आँखों पर पट्टी बाँधे राजनैतिक स्कूटर पर किधर जा रहे हो? किस दिशा को जा रहे हो - समाजवाद? खुशहाली? गरीबी हटाओ? कौन सा गंतव्य है? वे कहते हैं - गंतव्य से क्या मतलब? जनता आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर का खेल देखना चाहती है। हम दिखा रहे हैं। जनता को और क्या चाहिए?

जनता को सचमुच कुछ नहीं चाहिए। उसे जादू के खेल चाहिए। मुझे लगता है, ये दो छोटे-छोटे जादूगर रोज खेल दिखा रहे हैं, इन्होंने प्रेरणा इस देश के राजनेताओं से ग्रहण की होगी। जो छब्बीस सालों से जनता को जादू के खेल दिखाकर खुश रखे हैं, उन्हें तीन-चार घंटे खुश रखना क्या कठिन है। इसलिए अखबार में रोज फोटो देखता हूँ, किसी शहर में नए विकसित किसी जादूगर की।

सोचता हूँ, जिस देश में एकदम से इतने जादूगर पैदा हो जाएँ, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों जादू से इतनी प्रभावित है? वह क्यों चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो राशन की दुकान पर लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता, वह लाइन छोड़कर जादू के खेल देखने क्यों खड़ी रहती है?
मुझे लगता है, छब्बीस सालों में देश की जनता की मानसिकता ऐसी बना दी गई है कि जादू देखो और ताली पीटो। चमत्कार देखो और खुश रहो।

बाकी काम हम पर छोड़ो।

भारत-पाक युद्ध ऐसा ही एक जादू था। जरा बड़े स्केल का जादू था, पर था जादू ही। जनता अभी तक ताली पीट रही है।
उधर राशन की दुकान पर लाइन बढ़ती जा रही है।
देशभक्त मुझे माफ करें। पर मेरा अंदाज है, जल्दी ही एक शिमला शिखर-वार्ता और होगी। भुट्टो कहेंगे - पाकिस्तान में मेरी हालत खस्ता। अलग-अलग राज्य बनना चाह रहे हैं। गरीबी बढ़ रही है। लोग भूखे मर रहे हैं।

हमारी प्रधानमंत्री कहेंगी - इधर भी गरीबी हट नहीं रही। कीमतें बढ़ती जा रही हैं। जनता में बड़ी बेचैनी है। बेकारी बढ़ती जा रही है।

तब दोनों तय करेंगे - क्यों न पंद्रह दिनों का एक और जादू हो जाए। चार-पाँच साल दोनों देशों की जनता इस जादू के असर में रहेगी। (देशभक्त माफ करें - मगर जरा सोंचें)

जब मैं इन शहरों के इन छोटे जादूगरों के करतब देखता हूँ तो कहता हूँ - बच्चों, तुमने बड़े जादू नहीं देखे। छोटे देखे हैं तो छोटे जादू ही सीखे हो।

दूसरा कमाल इस देश में साधु है। अगर जादू से नहीं मानते और राशन की दुकान पर लाइन लगातार बढ़ रही है, तो लो, साधु लो।

जैसे जादूगरों की बाढ़ आई है, वैसे ही साधुओं की बाढ़ आई है। इन दोनों में कोई संबंध जरूर है।

साधु कहता है - शरीर मिथ्या है। आत्मा को जगाओ। उसे विश्वात्मा से मिलाओ। अपने को भूलो। अपने सच्चे स्वरूप को पहचानो। तुम सत्-चित्-आनंद हो।

आनंद ही ब्रह्म है। राशन ब्रह्म नहीं। जिसने 'अन्नं ब्रह्म' कहा था, वह झूठा था। नौसिखिया था। अंत में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रह्म है।

पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक सा है? नहीं है तो ब्रह्म एक नहीं अनेक हुए। यह शास्त्रोक्त भी है - 'एको ब्रह्म बहुस्याम।' ब्रह्म एक है पर वह कई हो जाता है। एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है।

सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।

शक्कर में पानी डालकर जो उसे वजनदार बनाकर बेचता है, वह भी ब्रह्म है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रह्म है।

ब्रह्म, ब्रह्म को धोखा दे रहा है।

साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रह्म की तरफ ले जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।'

26 जनवरी आते आते मैं यही सोच रहा हूँ कि 'हटाओ गरीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भुखमरी को, क्या हुआ?

बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें - जादूगर और साधु।

ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे।

भारत-भाग्य विधाता। हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ाते जाएँ।

हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरूस्थल की रेत में न छिपे'(रवींद्रनाथ) वह तो छिप गई। इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो। (जिसमें जादू्गर और साधु जनता को खुश रखें)।

यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से!

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