कहानी - जिया न जलइयों रे.... राहुल भारती



       
                            जिया न जलइयों रे ....



खुद को दस बार शीशे में देखने के बाद जब उसे तसल्ली हो गई कि वो ठीक लग रहा है | उसने अपना बैग उठाया और सीढियों से नीचे उतरने लगा | सीढ़ियों पर ही एक्स का डीयो लगाया और फिर चलता बना | डीयो की खुशबू कुछ ऐसे फैली लगा कि सारी लडकियाँ अभी आकर चिपक जायगी बिलकुल एक्स डीयो के ऐड की   तरह | ढीला चेक वाला पायजामा, झूलती सी टी-शर्ट जिस पर 'चे ग्वेरा' बाहर झांकते हुए और कंधे पर लटकता वो लैदर का काला बैग जो शायद करोल बाग़ में हर सोमवार को लगने वाले चोर बाजार से बड़े ही सस्ते दामों में खरीदा गया था |

                                           
                                                 चित्र - राहुल भारती 


बारिश से रास्ते में जो कीचड़ हो गयी थी वह उसके हर कदम पर जमीन से उठकर उसके पाएजामे में चिपकती जाती, चलो एक्स डीयो ने किसी को तो आकर्षित किया | सामने कोने से लगकर एक दूकान जिस पर कम-से-कम बीस प्रकार के गुटखों की लड़ियाँ बड़े ही अनुशासन में लगी हुई है | ठीक सामने सड़क पर बोर्ड लगा है कृपया अपने लेन में रहे | इन लड़ियों ने ज्यादा ही गम्भीरता से बोर्ड को ले लिया | न जाने इन लड़ियों में कैद गुटखों के स्वाद में क्या भिन्नता होगी | खैर....वह युवक उस दुकान पर पहुंचा दुकानदार ने जैसे ही उसे देखा तुरंत अंदर से दो मालबोरो एडवांस की सिगरेट ले आया और धीमी सी हंसी के साथ उसके सामने सरका दी | वह भी धीरे से मुस्कुराया और बोला "बहत्तर रूपये हो गये है" | "ठीक है" दुकानदार ने सहमति जताई | लगता है वह युवक इसका पुराना ग्राहक है, क्योंकि दुकानदार बखूबी जानता है कि वह कौन सी सिगरेट पीता है और बोलने से पहले ही लाकर रख देता है | 

उस युवक को आज भी याद है कि किस तरह हिचकते हुए,कांपते हुए हाथों से अपनी पहली सिगरेट ली थी | सिगरेट क्या ली समझो खुद का मजाक ही उडवाया | हिचकते हुए दुकानदार से बोला, "भईया एक सिगरेट देना" दुकानदार अपने काम में व्यस्त था | इधर-उधर देखते हुए फिर से आवाज लगाई "भईया.....एक सिगरेट देना" दुकानदार ने पान वाली हंसी अपने चेहरे पर फैलायी फिर उसके पास आकर बोला "कौन सी वाली ?" युवक थोड़ा झिझका और कहा "कोई सी भी दे दो" | दुकानदार ने उसे उपर से नीचे की ओर देखा और कहा "का भईया पहली बार पीत हौ का ?" युवक थोड़ा शरमाया और हाँ में सर हिला दिया | बस इतना ही था कि दुकान वाले ने अपनी हंसी दाँतों तले दबाई और शुरू हो गया "भईया जी हमारे पास सब सिगरेट है, हल्की से लेके, दमदार | आपका पहली बार है तो ई हल्की वाली अल्ट्रा माइल्ड से शुरू करो" | युवक ने झट से जेब से बीस रूपये निकाले और सामने की स्लेप पर रख कर सर्रर्र से निकल गया | दुकानदार ने आवाज लगाई "भईया छुट्टे तो ले लो" | 
तो यह था पहली सिगरेट का पहला अनुभव | फिर तो पट्ठे ने अपने स्वादानुसार अपनी सिगरेट भी बदल ली और आकर टिक गया मालबोरो एडवांस पर | उसने कही सुना था कि सिगरेट पीने से टेंशन कम होती है इसलिए उसने सिगरेट पीने की शुरुआत की थी | कहीं सिगरेट बेचने वालों के भेष में नामी-गिरामी डाक्टर तो नहीं जो टेंशन कम करने का सामाजिक कार्य राह के हर कोने के खोखे पर बैठकर करते हैं | 
उस सिगरेट से उस युवक की टेंशन कम हुई होगी भी या नहीं ये तो उससे अच्छा कोई और बता नहीं सकता पर, सिगरेट का उसने पहला कश लिया था, तब धुँआ उसकी श्वास नलियों को चीरता हुआ उसके फेफड़ों में जा उलझा | धुँआ तो फेफड़ों में गया पर उसकी जलन उसके ह्रदय में उतर गयी थी और सहसा उसके कंठ से स्वरबद्ध गाना निकला --- 
                                   
                 "लाकड़ जल के कोयला होई जाए,
                   कोयला होई जाए राख |
                   जिया जले तो कुछ न होई रे       
                   न धुँआ न राख | 
                  जिया न जलइयों रे...................|"

शायद वह युवक उस समय सिगरेट नहीं अपना ह्रदय (जिया)  जला रहा था | जिसके जलने पर न ही धुँआ था न ही राख बस जिया जल रहा था, जल रहा था और बस जल ही रहा था | 
वह सिगरेट मानो टाईम मशीन हो,जो उसे अतीत के अँधेरे में ले गयी हो अतीत ज्यादा पुराना नहीं था बस कुछ ही समय पहले  का था | दिल का मामला था शायद तभी तो उसके होंठ गुनगुना रहे थे- 
                                                           
                  "जिया न जलइयों रे ....|"

उस दिन सिगरेट तो जल कर राख हो गयी पर उस दिन से आज तक वह जिया जलाते आ रहा है | पर अब उसने अपने दिल को पूरी तरह जला दिया था जिस दिल में सबकुछ पुराना कैद था उसे उसने जला दिया था | अब धुँआ और रख कुछ भी नहीं था | पर अगर उसने सब कुछ जलाके खत्म कर ही दिया था तो फिर आज उसने सिगरेट क्यों ली ? शायद हाँ सिगरेट पीते-पीते उसने अपनी आवाज में जो बदलाव महसूस किया वह नया था अब उस आवाज में दर्द भी था और गहराई भी | आवाज अब गमक के साथ खरज में आंदोलित होने लगी थी | अब तो फ़िल्मी गाने की जगह राग मल्हार ने ले ली थी जिसे वह सिगरेट के कश के साथ खरज से तार तक गाता -  

                     "गरजों नाही बरसों रे बदरवा, 
                        पिया मिलन की रुत आई 
                         गरजों नाही ...."       
    



                                                                         
                                           -  राहुल भारती








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