असग़र वजाहत और अब्दुल बिस्मिल्लाह जन्मदिवस

आज है 5 जुलाई यानी  साहित्य की वह ऐतिहासिक तारीख़ जिसने हिंदी साहित्य-संसार को दो ऐसे मूर्धन्य साहित्यकार दिए जिन्हें हम असग़र वजाहत और अब्दुल बिस्मिल्लाह के नाम से जानते हैं। कूड़ा-करकट टीम की ओर से दोनों ही लेखकों को जन्मदिवस की हार्दिक बधाई के साथ-साथ पढ़ते है असग़र वजाहत की दो लघु कथाएं और अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानी | फोटो एडिट किये हैं आमिर विद्यार्थी ने।




                                  (((((((असग़र वजाहत)))))



1 - वीरता

जैसा कि अक्सर होता है। यानि राजा जालिम था। वह जनता पर बड़ा अन्याय करता था और जनता अन्याय सहती थी, क्योंकि जनता को न्याय के बारे में कुछ नहीं मालूम था।
राजा को ऐसे ही सिपाही रखने का शौक था जो बेहद वफ़ादार हों। बेहद वफ़ादार सिपाही रखने का शौक उन्हीं को होता है जो बुनियादी तौर पर जालिम और कमीने होते हैं। राजा को हमेंशा ये डर लगा रहता था कि उसके सिपाही उसके वफ़ादार नहीं हैं और वह अपने सिपाहियों की वफ़ादारी का लगातार इम्तिहान लिया करता था। एक दिन उसने अपने एक सिपाही से कहा कि अपना एक हाथ काट डालो। सिपाही ने हाथ काट डाला। राजा बड़ा खुश हुआ और उसे वीरता का बहुत बड़ा इनाम दिया।
फिर एक दिन उसने एक दूसरे सिपाही से कहा कि अपनी टांग काट डालो। सिपाही ने ऐसा ही किया और वीरता दिखाने का इनाम पाया। इसी तरह राजा अपने सिपाहियों के अंग कटवा-कटवाकर उन्हें वीरता का इनाम देता रहा।
एक दिन राजा ने देश के सबसे वीर सैनिक से कहा कि तुम वास्तव में कोई ऐसा बहादुरी का काम करो जिसे और कोई न कर सकता हो। वीर सैनिक ने तलवार निकाली, आगे बढ़ा और राजा का सिर उड़ा दिया। 


2 - ज-3

‘ज’ के पेट में बेहताशा गालियां भरी हुई थीं। लेकिन वे ज़बान पर नहीं आती थीं। ‘ज’ रात-दिन किसी ऐसे आदमी को तलाश में घूमता था जो उसकी ज़बान खोल सके। लेकिन कोई उसकी ज़बान न खोल सका कि वह गालियां बक सके। सब लोगों ने उससे कहा यही कहा कि धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान सिखा पढ़ा सकते हैं।, गालियां नहीं।
‘ज’ ने सबको एक ही जवाब दिया, ‘‘मैं तो सिर्फ गालियां बकना चाहता हूं।’’
‘ज’ के पेट में गालियों का अम्बार बढ़ता गया। वह बेचैन होकर रात-दिन घूमने लगा। आखिर एक दिन किसी ने उससे कहा कि जबान के डाक्टर के पास जाओ। वह तुम्हारी समस्या सुलझा सकता है।
ज़बान का डाक्टर उन दिनों अपने-आपको ‘घोड़ा डॉक्टर’ कहा करता था और गधों का इलाज करता था। ‘ज’ उसके पास पहुंचा। डॉक्टर ने ‘ज’को देखा और बताया कि वह गालियां कभी नहीं बक सकता।
‘ज’ ने बहुत परेशान होकर पूछा, ‘‘क्यों’
डॉक्टर ने जवाब दिया, ‘‘इसलिए कि तुम्हारे हाथ बंधे हुए हैं।’’
‘ज’ ने वास्तव में महसूस किया कि उसके दोनों हाथ नमस्ते करने वाली मुद्रा में जकड़े हुए हैं। ‘ज’ ने झटका देकर हाथ छुड़ा लिए तो उसके मुंह से गालियां फूलों की तरह झड़ने लगीं।











((((((अब्दुल बिस्मिल्लाह)))))


पगला राजा

एक गाँव है पांडेपुर। नाम से तो ऐसा लगता है कि इस गाँव के निवासी सब ब्राह्मण ही होंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। भिन्न-भिन्न जातियों के लोग यहाँ रहते हैं और अपने-अपने तरीके से जीवन यापन करने के लिए स्वतंत्र हैं। 
इस गाँव की अपनी एक गरिमा है, अपना एक महत्त्व है। किसी-न-किसी रूप में यह गाँव इतिहास से भी जुड़ा हुआ है और सांस्कृतिक धरोहरों से भी। इस गाँव में अनेकानेक रईस भी पैदा हुए और संत भी। दूर-दूर तक इस गाँव की महिमा बखानी जाती है और यहाँ के लोगों को इस बात का गर्व भी है। 


परन्तु दुर्भाग्य से इस गाँव का एक आदमी पागल हो गया है। नाम है भुल्लन ! पेशे से बढ़ई। लकड़ी के काम में माहिर। अपने पागलपन में भी वह जितना खूबसूरत हल बना सकता है, दूसरा बढ़ाई नहीं बना सकता। 

घर में उसके पत्नी है, बेटे हैं, बेटियाँ हैं, एक बकरी है और द्वार पर एक कुत्ता है। कपड़े तो वह ढंग के नहीं पहनता, पर सिर पर पगड़ी जरूर रहती है। आदमी वह सीधा-सादा है, उदार है, लेकिन कभी-कभी ऐसी हरकतें करता है कि लोग उसे पागल समझते हैं। 


इन हरकतों का सिलसिला कब आरम्भ हुआ, कहा नहीं जा सकता। फिर भी, लोगों को इतना मालूम है कि भुल्लन के व्यवहार में बुनियादी परिवर्तन बहुत पहले ही दिखाई पड़ने लगा था। इसी सदी का शायद वह मध्यकाल था। चारों ओर किसी उत्सव-सा वातावरण बना हुआ था और लोग जरूरत से कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रहे थे। लेकिन भुल्लन चूँकि जरूरत से कुछ ज्यादा ही सीधा-सादा है इसलिए वह सारा तामझम उसकी समझ में नहीं आ रहा था। 

सुबह का वक्त था। सूरज उग रहा था। मंद-मंद हवा में कुएँ के पास वाला नीम लहरा रहा था। धरती से मीठी-मीठी खुशबू उठकर आसपास के खेतों में बड़ी ठसक के साथ उड़ रही थी। ऐसी सुहानी वेला में भुल्लन अपनी दहलीज पर गुम-सुम बैठा आकाश के धब्बों को देख रहा था और पांडेपुर में मची हुई हलचलों के सम्बन्ध में सोच रहा था कि आखिर इसका नतीजा क्या निकलेगा ? तभी कुछ लोग आकर उसके सामने खड़े हो गए थे। वे लोग सफेद-झक कपड़े पहने हुए थे और किसी नये युग के दूत के समान प्रतीत हो रहे थे। 


भुल्लन ने आकाश के धब्बों को देखना बन्द कर दिया था और उठकर खड़ा हो गया था। उसके हाथ अपने आप ही जुड गए थे। 

‘‘तुम उदास क्यों हो भुल्लन ?’’
उनमें से एक दूत ने यह बात कही तो भुल्लन थोड़ा चौंक गया। ये तो अपने रघुनाथ बाबा हैं। ये दूत कब से हो गए ? उसके मन ने यह सवाल करने की कोशिश की, पर जवाब के लिए भुल्लन के पास वक्त नहीं था। उस वक्त उसके मुँह में स्वयं एक सवाल फिसल रहा था। 
‘‘यह चहल-पहल क्यों है बाबा ?
रघुनाथ बाबा मुस्कराए। 



‘‘तुम्हें नहीं मालूम ? आश्चर्य है ! तुम्हारे ही कारण यह जश्न हो रहा है और तुम्हीं को कुछ पता नहीं है !’’

भुल्लन की अक्ल पंचर हो गयी। यह तो सास्तर वाली बात लगती है। जो समझ में न आये वही तो शास्त्र है। 
‘‘बाबा, तनिक फिर से समझाइये।’’
भुल्लन ने माथे पर अपनी हथेली इस प्रकार रख ली मानो उगते हुए सूर्य का ताप भी अचानक तीव्र हो उठा हो। 
‘‘तुम्हारी समझ में नहीं आया भुल्लन !’’



भुल्लन ने माथे से हथेली हटा ली। सिर हिला दिया। 

‘‘अरे भाई, तुम राजा हो गए हो। यह राज्य अब तुम्हारा है, इस पर अब किसी दूसरे का अधिकार नहीं रहा।’’
भुल्लन की अक्ल इस बार ‘भस्ट’ हो गयी। और भुल्लन पागल हो गया। उसके दिमाग में पता नहीं कहाँ से यह वहम पैदा हो गया कि वह राजा है। कुछ लोग कहते हैं, चूँकि उसका बड़ा बेटा असमय में ही चल बसा इसलिए उसका दिमाग फिर गया और कुछ लोगों का विचार है कि उसकी बड़ी लड़की मेले में गायब हो गयी इसलिए वह पागल हो गया। लेकिन यह किसी को नहीं मालूम है कि भुल्लन की बीघा भर जमीन को जब ठाकुर हरबंससिंह ने अपने खेत के साथ मिला लिया तो रघुनाथ बाबा के उस कानून ने उसकी कोई सहायता नहीं की जिसकी रोशनी में भुल्लन को समझाया गया था कि अब इस धरती पर उसका राज्य आने वाला है। और अपनी जमीन की मेंड़ पर खड़े होकर जिस रोज पहली बार भुल्लन ने मुँह में फेन भर आने की हद तक अपना भाषण दिया था उस रोज उसके मुँह से जो अन्तिम बात निकली थी, वह कुछ इस प्रकार थी-



‘‘ठाकुर हरबंससिंह को समझ लेना चाहिए कि भुल्लन से झगड़ा मोल लेना हँसी-खेल नहीं है। अब इस धरती पर अंग्रेजों का नहीं भुल्लन का राज्य है। भुल्लन यहाँ का राजा है। राजा से मोंछ फँसाने की कीमत ठाकुर साहब को चुकानी ही पड़ेगी।’’

और भीड़ के होंठों पर हँसी की एक गहरी लकीर उभर आयी थी। भुल्लन ने उस लकीर को देखा था और आँखों में उसकी नोक को झेलता हुआ गायक हो गया था।
तब से उसकी चाल-ढाल में एक खास किस्म का बदलाव दिखाई पड़ने लगा है। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यही देखा लोगों ने कि भुल्लन के सिर से अब एक क्षण के लिए भी पगड़ी उतरती है। पगड़ी को वह शाही सिम्बल समझता है और डरता है कि उसे उतारते ही कहीं वह पुनः न प्रजा में बदल जाए। यही कारण है कि कुर्ता वह भले ही न पहने धोती उसकी भले ही तार-तार हो जाए; लेकिन पगड़ी को कोई आँच नहीं आने पाती। 



फिर भी, काम में उसके कोई अन्तर नहीं आया। चारपाई से लेकर हल बनाने तक का सारा काम वह उसी लगन से करता है जैसे पहले किया करता था। अब भी उसका बसूला उसी तेजी से चलता है और रंदे में वही गुण अब भी विद्यमान है। लेकिन स्वभाव चूँकि शाही हो गया है, इसलिए मेहनत करके भी भूखों मरता है। 

एक दिन, गाँव के बहुत बड़े रईस श्री मातादीन शुक्ल ने भुल्लन से अपनी पलँग ठीक करायी और शाम को मजूरी देते वक्त मुस्कराते हुए कहा, ‘‘महाराज, हम गरीबों पर दया कीजिए, दो-चार रुपयों से आपका तो कुछ बिगड़ नहीं जाएगा। 
और भुल्लन अपनी पगड़ी को सँभालता हुआ घर आ गया। चेहरे पर एक विचित्र प्रकार का संतोष तैर रहा था उस रोज !
तब से पूरे पांडेपुर में यह बात प्रसिद्ध हो गयी है कि भुलना राजा आदमी है एकदम शाही तबीयत का। और तभी से भुल्लन प्रजा की तरह काम करता है और मजूरी छोड़कर राजा की तरह घर चला आता है। 



उसके बेटों को यह बात अच्छी नहीं लगती, लेकिन भुल्लन का विरोध करना आसान नहीं है। हालाँकि उन्हें पता है कि राज्य भुल्लन का नहीं, रघुनाथ बाबा और ठाकुर हरबंससिंह का आया है। सिंहासन वही है, सिर्फ गद्दी बदल गयी है। आसन पर तो सिंह ही बैठे हुए हैं अब भी। लेकिन भूल्लन के वहम का कोई इलाज नहीं है। 



एक बार तो भुल्लन ने एक आश्चर्य काम किया। किसी ने उससे कह दिया, ‘‘भुल्लन यह कैसा अंधेर है ? राजा तो तुम हो और गद्दी पर करोड़ीमल जी बैठे हैं। कभी अपनी राजधानी की भी खबर ले आओ।’’ बस क्या था, उसने करोड़ीमल जी के खिलाफ एक दरख्वास्त लिखवायी, यह राज्य मैंने करोड़ीमल जी को इसलिए दिया कि वे इसकी व्यवस्था करेंगे, प्रजा की भलाई में लगे रहेंगे, राज्य में स्वतन्त्रता को बरकरार रखेंगे और प्रजा के अधिकारों की रक्षा पूरी निष्ठा के साथ करेंगे, लोगों के लिए भोजन-वस्त्र एवं घर की समुचित व्यवस्था करेंगे तथा राज्य में धर्म निरपेक्षता की भावना का विकास करेंगे। परन्तु करोड़ीमल जी ने सारी शर्तें भुला दी हैं। वे राजमद में चूर हैं और राज्य का कार्य भार उनके वश से बाहर हो गया है। अतः उन्हें आदेश दिया जाय कि वे मेरा राज्य मुझे वापस कर दें।’’



इस दरख्वास्त की चर्चा बहुत दिनों तक रही पांडेपुर में और भुल्लन से इस सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें करके नवयुवकों ने अपना खूब मनोरंजन किया। पर गाँव के समझदार लोग उससे आतंकित हो गये। हालाँकि आतंक कोई कारण नहीं था। भुल्लन के बारे में यह आम राय थी कि वह पागल होते हुए भी बेहद सिनसियर और सीरियस है। अल्पशिक्षित होते हुए भी मूर्ख नहीं है और चीजों को बारीकी से पकड़ने में कुशल है। 



जिन दिनों भुल्लन के दिमाग को लेकर पांडेपुर में विवादास्पद बातें चल रही थीं उन्हीं दिनों की बात है कि गाँव के दो पक्षों में संघर्ष हो गया। दरअसल संघर्ष तो सदा ही तो पंक्षों में होता है-चाहे वह गाँव का संघर्ष का हो या देश का, लेकिन उसका महत्त्व तब काफी बढ़ जाता है जब वह सेवा के लिए किया जाता है। पहले अनार एक होता था, बीमार सौ होते थे, अब बीमार तो एक ही है, अनार सौ हो गये हैं। और हर अनार का दावा है कि रोगी का एक मात्र इलाज वही है। यह एक समस्या है इस युग की ! इस धरती की !



पांडेपुर को भी पिछले दिनों इसी समस्या से दो-चार होना पड़ा। दरअसल गाँव में ग्राम विकास समिति नामक एक संस्था की स्थापना हुई और यह संविधान बना कि गाँव के कुछ खास लोग गाँव का विकास करेंगे और गाँव की समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें दूर करने का प्रयास करेंगे। विचार तो अच्छा ही था, लेकिन उन खास लोगों के दो दल बन गये और हर दल यह चाहने लगा कि सेवा का अवसर उसी दल को मिलना चाहिये। हर दल का दावा था कि गाँव का समुचित विकास केवल वही दल कर सकता है। गाँव की समस्याओं का अध्ययन एवं निवारण करने में केवल वही दल सक्षम है और वही एक दल ऐसा है जिसमें साहस से लेकर ईमानदारी तक सारे गुण मौजूद हैं।



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