कविता


   

                                                   'ठेकेदार'
                       
                                                                       -फरज़ाना सैफी 'बड़बोली'
     


न जाने कैसी रंजिशे हैं
इन आँखों में?
कुछ तो वजह हो मुकम्मल
जिस पर किसी हद तक
सोचा जाए
कौन हैं वह चार लोग
जिन्हें ठेकेदार बनाया गया है हमारा
जो घूमते हैं हमारे इर्द-गिर्द
और घूरते हैं बड़ी-बड़ी आँखों से
क्यों उनकी झूठी रीतियों को माना जाए
क्यों उन्हें सर्वोपरि माना जाये
क्या सचमुच उन लोगों में है इतनी कुव्वत
कि वो जीत जाएं हम पर?
लेकिन उन चार खम्बों का सहायक
हम खुद भी हैं
चलिए अब पहल की जाए
और यह दीवार कमज़ोर बनाई जाए
फिर देखते हैं कौन किस पर भारी
हम भारी या तुम भारी?


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